गढ़वाल में विलुप्ति की कगार पर उरख्याळी गंज्याळी

by intelliberindia
 
कोटद्वार (गौरव गोदियाल) । उत्तराखंड के गांवों से लोग पलायन करते जा रहे हैं साथ ही साथ यहां की परम्परा भी विलुप्ति की कगार पर है। आज हम बात कर रहे हैं ओखली की । गढ़वाल में इसे ऊखल या उरख्याळी कहा जाता है । लोग गांवों में शहरों जैसा घर बनाने लग गए हैं जिस कारण ऊखल या उरख्याळी भी विलुप्ति की कगार पर आ गई है । एक समय था जब ओखल का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान हुआ करता था, यह हमारे आँगन का राजा हुआ करता था ।
उत्तराखंड के गाँवों में सभी शुभ कार्य ओखल से ही शुरू होते थे । किसी के घर पर होने वाले मंगल कार्य से कुछ दिन पहले गाँव की महिलाएं एक तय तारीख को उस घर में इकट्ठा होती थी । जहाँ सबसे पहले ओखल को साफ करते और उसमें टीका लगाते थे, टीका लगाने के बाद सबसे पहले पांच सुहागन महिलायें अनाज कूटना शुरू करती थी बाकि महिलाएं मंगल गीत गातीं थी । इसके बाद सभी महिलाएं और लड़कियाँ मिलकर अनाज, मसाले आदि कूटने और साफ करने का काम करती थी । 
गढ़वाल में ओखली को उरख्याली और उसके साथी मुसल को गंज्याळी कहा जाता है । आज भी गढ़वाल के गाँवों में मांगलिक कार्य में प्रयोग होने वाली हल्दी उरख्याली में ही कूटी जाती है । ओखली का उत्तराखंड के लोगों से बहुत गहरा रिश्ता है । ओखल को पत्थर के अलावा बांज या फ्ल्यांट की मजबूत लकड़ी से बनाया जाता है । पत्थर से बने ओखल में पत्थर का वजन लगभग 80 किलो तक होता है । जिसे डांसी पत्थर कहते हैं । ओखल का पत्थर चौकोर होता है जिसे किसी आँगन में नियत स्थान पर गाढ़ा जाता है ।ओखली के चारों ओर पठाल बिछा दिये जाते हैं । ओखल ऊपर से चौड़ा और नीचे की ओर संकरा होता है । ओखल में कूटने के लिए एक लम्बी लकड़ी का प्रयोग किया जाता है जिसे मूसल कहते हैं । मूसल साल या शीशम की लकड़ी का बना होता है । मूसल की गोलाई चार से छ्ह इंच होती है ओर लंबाई लगभग पाँच से सात फीट तक होती है । मूसल बीच में पतला होता है ताकि उसे पकड़ने में आसानी हो । मूसल के निचले सिरे पर लोहे के छल्ले लगे होते हैं । जिन्हें सोंपा या साम कहते हैं । इनसे भूसा निकालने में मदद मिलती है ।

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