बलरामपुर : शक्तिपीठ देवीपाटन उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में देवी के 51 शक्तिपीठों में से एक पीठ स्थित है, जिसे मां पाटेश्वरी देवी मंदिर से जाना जाता है। यह मंदिर शिव और सती के प्रेम का प्रतीक माना जाता है। इस मंदिर का वर्णन शिव पुराण में भी है। मान्यता के अनुसार यहां पर सती मां का बाया स्कंध (कंधा) गिरा था। वहीं, वहीं कुछ लोगों का मानना है कि जगदंबा सती का वस्त्र यहां पर गिरा था।
नेपाल से अनूठा रिश्ता
इसके पीछे एक पौराणिक मान्यता है। कहा जाता है कि एक रतननाथ जी महाराज हुआ करते थे, जो माता के अनन्य भक्त थे। वह जो अपनी सिद्ध शक्तियों के माध्यम से नेपाल के एक मंदिर और देवीपाटन में विराजमान मां पाटेश्वरी की एक साथ पूजा करते थे। उनकी साधना से प्रसन्न होकर माता ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उनकी सवारी को मंदिर में आने का आशीर्वाद दिया। कहा जाता है कि तब से रतननाथ जी की सवारी चैत्र नवरात्रि में की पंचमी देवीपाटन पहुंचती है। उनके साथ पुजारी भी होते हैं। सवारी मंदिर में स्थान ग्रहण करती है और दशमी तक मंदिर में ही रहती है।
पौराणिक इतिहास
यह मंदिर बलरामपुर मुख्यालय से 28 किलोमीटर दूर स्थित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव की पत्नी देवी सती के पिता दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया, लेकिन उस यज्ञ में भगवान शिव को नहीं बुलाया। जिससे नाराज होकर सती ने यज्ञ कुंड में ही अपने प्राणों की आहुति दे दी। जब इसकी सूचना भगवान शिव को हुई तो उन्होंने क्रोधित होकर देवी सती के शव को कुंड से निकाला और अपने कंधे पर लेकर तांडव करने लगे। इसके बाद भगवान ब्रह्मा के आग्रह पर भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर को 51 अलग-अलग हिस्सों में बांट दिया, जिसके बाद भगवान शिव का गुस्सा शांत हो गया। बलरामपुर में इस जगह पर देवी सती का पट (वस्त्र) गिरा था इसलिए इस शक्तिपीठ का नाम पाटेश्वरी पड़ा।
नर्तकी करती हैं नृत्य
मां पाटेश्वरी देवी के इस मंदिर में पूजा की अनोखी मान्यता है। यहां पर देवी को प्रसन्न करने के लिए नृत्य और गायन की प्रथा प्रचलित है। मां के दरबार में रोजाना दर्जनों की संख्या में नर्तकी नृत्य करती हैं और गायन भी होता है। माना जाता है कि देवी नृत्य और गायन करने से खुश होती हैं, जिससे भक्तों की मनोकामना पूरी होती है।
मंदिर परिसर में सूर्य कुंड
मां पाटेश्वरी देवी के मंदिर परिसर में ही एक बड़ा सूर्यकुंड है। मान्यता है कि महाभारत के समय कर्ण ने यहीं पर स्नान किया था और भगवान सूर्य की पूजा की थी। इसी वजह से इसका नाम सूर्य कुंड भी पड़ गया। इस कुंड में नहाने मात्र से कुष्ठ रोग समेत कई चर्म रोग ठीक हो जाते हैं।
इस सुरंग से मां सीता पाताल में समाईं थी
मंदिर में ही एक सुरंग भी मौजूद है, जिसका संबंध मां सीता से बताया जाता है। लंका विजय के बाद सीता माता को जब अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी तो उस दौरान उन्होंने फिर पृथ्वी मां से गोद में समा लेने की प्रार्थना की थी। जिसके बाद पृथ्वी मां ने अपनी गोद में बैठाकर पाताल में ले गईं। कहा जाता है कि यह वही स्थान है जहां पर सीता मां धरती में समाई थीं। इस सुरंग के मुहाने पर एक चबूतरा भी बना है, जिस पर कपड़ा बिछा रहता है। यहां पर एक अखंड ज्योति भी है, जो मंदिर के निर्माण के समय से ही जल रही है। इस मंदिर के पुजारी के द्वारा चारों तरफ घूम कर एक गुप्त पूजा की जाती है, जिसके बाद मंदिर भक्तों के दर्शन के लिए खुल जाता है।
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