उत्तराखंड : इस गढ़वाली के प्रयासों से बनी थी ‘गढ़वाल राइफल’, जानें इतिहास, कौन थे लैंसडौन? पहाड़ समाचार editor
एक्सक्लूसिव
लैंसडौन…। यह केवल एक हिल स्टेशन नहीं है। यह भारतीय सेना खासकर गढ़वाल राइफल के गौरव का वो शिखर है, जहां से देश को एक से बढ़कर एक यौद्धा मिले। गढ़वाल राइफल को रॉयल गढ़वाली की पहचान ऐसे ही नहीं मिली। गढ़वाल राइफल की स्थापना आजादी से कई साल पहले हो चुकी थी। यह वही गढ़वाल राइफल है, जिसकी वीरता के दुनियाभर में उदाहरण दिए जाते हैं। भले ही इसकी स्थापना का श्रेय अग्रेंजों को दिया जाता रहा हो, लेकिन इसकी स्थापना के पीछे एक गढ़वाली बलभद्र सिंह नेगी की ही सोच थी। उन्होंने ही सबसे पहले गढ़वाल पल्टन बनाने का प्रस्ताव रखा था, जिसके आधार पर गढ़वाल राइफल नाम रखा गया।
गढ़वाल राइफल्स की स्थापना 5 मई 1887 अल्मोड़ा में हुई थी। बाद में इसी साल 4 नवंबर 1887 को लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स की छावनी स्थापित की गई है। वर्तमान में यह गढ़वाल राइफलस रेजिमेंट का ट्रेनिंग सेंटर है। गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना के पीछे बलभद्र सिंह नेगी का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने सन् 1879 में कंधार के युद्ध में अफगानों के विरुद्ध अपनी अद्भुत हिम्मत, वीरता से ही ‘आर्डर ऑफ मैरिट’, ‘आर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’, ‘सरदार बहादुर’ समेत कई सम्मान हासिल किए।
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बलभद्र सिंह नेगी को जंगी लाट का अंगरक्षक बनाया गया था। इतिहास के पन्नों में इस बाद का जिक्र कई जगहों पर मिलता है, जिनमें बलभद्र सिंह नेगी का नाम आता है। उन्होंने ही जंगी लाट से अलग गढ़वाली बटालियन बनाने की सिफारिश की थी। लंबी चर्चा के लार्ड राबर्ट्सन ने 4 नवम्बर 1887 को गढ़वाल ‘कालौं का डांडा’ में गढ़वाल पल्टन का शुभारम्भ किया था। 1890 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हेनरी लैंसडाउन के नाम पर तत्कालीन उत्तराखंड के क्षेत्र कालुडांडा को लैंसडाउन नाम दिया गया था। वर्तमान में यह स्थान उत्तराखंड राज्य के पौड़ी गढ़वाल जिले में स्थित है। बता दें कि-दइेच;गढ़वाल रायफल्स भारतीय सेना की एक थलसेना रेजिमेंट है। इसे मूल रूप से 1887 में बंगाल सेना की 39वीं (गढ़वाल) रेजिमेंट के रूप में स्थापित किया गया था।
1891 में 2-3 गोरखा रेजीमेंट की दो कंपनियों से एक गोरखा पलटन 2-3 क्वीन अलेक्टजेन्टास आन (बटालियन का नाम) खड़ी की गई और शेष बटालियन को दोबारा नए बंगाल इन्फैंट्री की 39वीं गढ़वाल रेजीमेंट के नाम से जाना गया। बैज से गोरखाओं की खुखरी हटाकर उसका स्थान फोनिक्स बाज को दिया गया। इसने गढ़वाल राइफल्स को अलग रेजीमेंट की पहचान दी। 1891 में फोनिक्स का स्थान माल्टीज क्रास ने लिया। इस पर द गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट अंकित था। बैज के ऊपर पंख फैलाए बाज थे, यह पक्षी शुभ माना जाता था। इससे गढ़वालियों की सेना में अपनी पहचान का शुभारंभ हुआ।
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उत्तराखंड में स्थित गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट सेंटर रेजिमेंट का युद्ध नारा है ‘बद्री विशाल लाल की जय भगवान बद्री नाथ के पुत्रों की विजय। गढ़वालियों की युद्ध क्षमता की असल परीक्षा प्रथम विश्व युद्ध में हुई, जब गढ़वाली ब्रिगेड ने ‘न्यू शैपल’ पर बहुत विपरीत परिस्थितियों में हमला कर जर्मन सैनिकों को खदेड़ दिया था। 10 मार्च 1915 के इस घमासान युद्ध में सिपाही गब्बर सिंह नेगी ने अकेले ही युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई थी। उन्होंने कई जर्मन सैनिकों का सफाया कर खुद भी वीरगति को प्राप्त हुए थे।
उसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध 1939 से 45 के बीच में गढ़वाल राइफल्स ने अपनी अहम भूमिका निभाई। ऐसे ही 1962 का भारत-चीन युद्ध, 1965 और 1971 का भारत-पाक युद्ध, शांति सेना द्वारा ऑपरेशन पवन (1987-88) उसके बाद 1999 में पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने अपनी वीरता से दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे।
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लेकिन, सवाल यह है कि लैंसडौन का नाम बदलने से क्या हासिल होगा? क्या नाम बदलने से लैंसडौन शहर की पहचान बदल जाएगी। उत्तराखंड विकास पार्टी के अध्यक्ष मुजीब नैथानी ने लैंसडौन का नाम बदले जाने का प्रस्ताव भेजने को लेकर सवाल खड़े किए हैं। उनका कहना है कि लैंसडौन के विकास पर ध्यान देने के बजाय नाम बदलने पर ध्यान दिया जा रहा है। क्या सरकार मशकबीन का भी नाम बदल देगी?
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