उत्तराखंड में किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है लेमनग्रास की खेती, खाली पडे खेतों से आर्थिकी का बना बड़ा जरिया

by intelliberindia
  • लेमनग्रास द्वारा खाली पडे खेतों का पुनरूद्धार

हरिद्वार/देहरादून : उत्तराखण्ड में कृषि जलवायु क्षेत्रों के अनुसार फसलों का चयन किया जाता है। किन्तु जगंली जानवरों से होने वाले नुकसान के कारण कृषकों को अत्यधिक नुकसान और परेशानी का सामना करना पड़ता है। उत्तराखण्ड़ में यह समस्या एक विकराल रूप धारण कर चुकी है। जिस कारण यहा पर अधिकतर कृषकों ने उन भूमि पर कृषिकरण कार्य कम कर दिया है। उक्त समस्या के सामाधान हेतु कैप सेलाकुई एंव मनरेगा योजना के द्वारा परम्परागत खेती में आ रही बाधाओं जैसे वन्य जीव जन्तुओं से फसलों को होने वाला नुकसान सिचाई का अभाव, ट्रासपोर्टेशन की समस्या एंव परम्परागत फसलों से अतिरिक्त अधिक लाभ लेने आदि को ध्यान में रखते हुये एंव कृषक की आमदनी को दोगुना करने को ध्यान में रखते हुये कलस्टरो का चयन किया गया एंव मनरेगा योजना को ध्यान रखते हुये कृषकों का एक समूह तैयार किया गया। मनरेगा योजना से भी लेमनग्रास लगाने के लिए आवश्यक सुविधायें उपलब्ध कराई गई।

उत्तराखण्ड में खेती में आ रही बाधाओं तथा जंगली जानवरों द्वारा फसलों को नुकसान पहुंचाना, वर्षा आधारित खेती, सिंचाई की कमी, कृषि उत्पादों के दुलान पर अधिक व्यय, कृषकों के निवास से खेतों की दूरी, प्रसंस्करण सुविधाओं का अभाव तथा कृषि निवेशो पर भारी व्यय के कारण कृषक खेती छोड़ रहे है, परिणामस्वरूप लगभग 3.67 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर हो चुकी है तथा लगभग 1065 गाँव पूर्णतया पलायनित हो चुके हैं जिस कारण भूमि का क्षरण, प्राकृतिक स्रोत्र का सूखना जैसी समस्याओं के साथ-साथ जंगली खरपतवारों का प्रकोप भी बढता जा रहा है।

इन समस्याओं के निदान हेतु सगन्ध पौधा केन्द्र (कैप), सेलाकुई द्वारा विभिन्न सगन्ध प्रसार कार्यक्रम चलाये जा रहे है, जिसके अन्तर्गत “Rehabilitation of Abandoned land through Lemongrass” कार्यक्रम के तहत कृषकों के खेतों में लेमनग्रास का कृषिकरण करवाया जा रहा है। राज्य में वर्ष 2017-18 से लेमनग्रास की खेती को मनरेगा कार्यक्रम से जोड़ कर ग्रामीणों को आर्थिक लाभ पहुंचाते हुये, रोजगार सृजन भी किया जा रहा है।

लेमनग्रास, जिसे नीबू घास से भी जाना जाता है. की खेती समुचित जल निकास वाली रेतीली दोमट से अन-उपजाऊ लेटराईट, ऊसर एवं क्षारीय, ढलान, बेकार, बंजर भूमियों में की जा सकती है, परन्तु जीवांशयुक्त दोमट मिट्टी जिसका पी.एच. 6.5-70 हो सर्वोत्तम रहती है। लेमनग्रास भूमि क्षरण की रोकथाम हेतु अतिउपयुक्त फसल है इस कारण ढलान वाली भूमियों पर भी इसे उगाया जा सकता है। इसके लिए उष्ण एवं समशीतोष्ण तथा उच्च आर्द्रता वाली जलवायु उपयुक्त रहती है। इसके तेल का उपयोग इत्र, सौन्दर्य प्रसाधन, साबुन, विटामिन-ए आदि बनाने में किया जाता है।

कैप सेलाकुई में प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन

जागरूकता कार्यक्रम के उपरान्त इच्छुक कृषकों का चयन कर उन्हें सगन्ध फसलों के विभिन्न पहलुओं पर कैप सेलाकुई में प्रशिक्षण के दौरान तकनीकी एंव व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि कृषक अपने-अपने क्षेत्रों में अपना स्वरोजगार स्थापित करते हुये उद्यमिता का विकास कर जनमानस को इस परियोजना का लाभ ले सके। कैप सेलाकुई में इन कृषकों को फसलों एंव इनके आसवन से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर व्याख्यान दिये जा रहे हैं साथ ही इन कृषकों को प्रशिक्षण के दौरान कृषिकरण एंव आसवन तकनीकी का प्रयोगात्मक अध्ययन गुणवत्ता नियन्त्रण आदि की विस्तृत जानकारी प्रदान की जा रही हैं ताकि कृषक स्वंय अपने क्षेत्रों में ही सगन्ध फसलों का सफल आसवन कर सके। समय-समय पर कृषकों को प्रशिक्षण के माध्यम से लेमनग्रास के कृषिकरण की जानकारी दी गयी।

लेमनग्रास की खेती लाभकारी

  • फसल बहुवर्षीय होने के कारण प्रति वर्ष बुआई से छुटकारा
  • एक बार रोपाई के उपरान्त पाँच वर्ष तक फसल की प्राप्ति
  • खरपतवार की समस्या अपेक्षाकृत कम
  • पशुओं के द्वारा चरने की समस्या नहीं
  • बाजार में निरन्तर माँग एवं अच्छे दाम
  • पारम्परिक फसलों की तुलना में अधिक लाभकारी

इसका प्रवर्धन स्लिप्स द्वारा किया जाता है। एक वर्ष पुराने अथवा पूर्ण विकसित पौधों को सावधानी से उखाड़कर उसमें से एक-एक स्लिप अलग कर लेते हैं, जिनकी लम्बाई लगभग 25-30 सेंमी रहती है। इन स्लिपों की समस्त हरी पत्तियां एवं नीचे की सूखी पत्तियों के साथ ही लम्बी जड़ों को काटकर अलग कर दिया जाता है। इस फसल की रोपाई के लिए फरवरी-मार्च एवं जुलाई-अक्टूबर का समय सर्वोत्तम रहता है। ढलान एवं बारानी क्षेत्रों में इसकी रोपाई वर्षा ऋतु में की जाती है तथा ऐसे क्षेत्रों में हल अथवा गेती द्वारा 06 इंच गहराई की नालियां बना लेते हैं, जिनमें 30 सेंमी की दूरी पर पौधों की रोपाई की जाती है। इन नालियों के आपस की दूरी 60 सेंमी होनी चाहिए। एक बीघा क्षेत्रफल हेतु 4000 स्लिप्स की आवश्यकता होती है।

लेमनग्रास फसल आमतौर पर रोपण के 04 से 06 महीने बाद कटाई के लिए तैयार हो जाती है। जब पौधा लगभग 1 से 1.5 मीटर की ऊंचाई तक पहुँच जाता है और एक तेज़ सुगंध विकसित करता है, जो अधिकतम तेल का संकेत देता है। बाद की कटाई हर 3 से 4 महीने में की जा सकती है। लेमनग्रास की कटाई प्रति वर्ष 03 से 04 बार तक की जा सकती है।

राज्य सरकार, लेमनग्रास की खेती लागत पर 50% सब्सिडी प्रदान करती है, जो अधिकतम 01 लाख या 02 हेक्टेयर तक है, जो भी कम हो। आसवन संयन्त्र स्थापना पर रूपये 10 लाख के व्यय तक संयत्र की कुल लागत का 75% पर्वतीय क्षेत्र एवं 50% मैदानी क्षेत्र के किसानों को अनुदान के रूप में दिया जा रहा है। कैप में पंजीकृत कृषकों को लेमनग्रास के सुगन्धित तेल का रूपये 1150/- प्रति किलोग्राम न्यूनतम समर्थन मूल्य भी निर्धारित है। लेमनग्रास आर्थिक लाभ की दृष्टि से भी उत्तराखण्ड में एक महत्वपूर्ण फसल के रूप में उभरी है।

वर्तमान में उत्तराखण्ड के देहरादून, हरिद्वार, पौड़ी, टिहरी, नैनीताल, ऊधमसिंह नगर आदि जनपदों में 31 कलस्टरों के अन्तर्गत 6433 किसानों की लगभग 1182 हेक्टेयर भूमि को लेमनग्रास की खेती से अच्छादित किया गया है। रोपित लेमनग्रास की कटाई कर कृ षकों द्वारा स्वयं आसवित कर लगभग 709 कुन्तल सगन्ध तेल उत्पादित किया जा किया जा रहा है।

लेमनग्रास से किसानों को आय

  • 01 हेक्टेयर = 300 किलो (समर्थन मूल्य के अनुसार) 1 हेक्टेयर = 300X1000 = 300000 रूपये / हेक्टेयर
  • प्रथम व्यय (मनरेगा अंश) 1 हेक्टेयर = 55874 रूपये (मजदूरी अंश) द्वितीय व्यय (विभागीय अंश) 1 हेक्टेयर 33750 रूपये (पौध के रूप में खर्च)
  • 01 हेक्टेयर से शुद्ध लाभ आय व्यय 300000-89624 210376 (शुद्ध लाभ) मनरेगा अंश एंव विभागीय अंश पर खर्च हुयी धनराशि लघु एवं सीमान्त कृषकों के लिये निःशुल्क उपलब्ध है। जिस कारण कृषक द्वारा 1 हेक्टेयर में बचत हुयी धनराशि 300000 रूपये / 1 हेक्टेयर उसका लाभांश है।

 

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