जीवन में बदलाव लाने वाली सोच : दुख अनिवार्य हैं किंतु पीड़ा वैकल्पिक हैं

by intelliberindia

देहरादून : जीवन का यथार्थ यही है कि दुख किसी न किसी रूप में हर इंसान के जीवन में आता ही है। किसी अपने के बिछड़ने का दुख, असफलता का दुख, या जीवन में संघर्षों का दुख — इनसे बचना लगभग असंभव है। यही कारण है कि कहा गया है “दुख अनिवार्य है”, यानी इसे कोई टाल नहीं सकता। परंतु “पीड़ा वैकल्पिक है” का अर्थ यह है कि उस दुख के प्रति हमारा दृष्टिकोण, हमारी प्रतिक्रिया हमारे हाथ में होती है। हम चाहें तो दुख को लगातार अपने मन में जकड़े रहकर उसे पीड़ा का रूप दे सकते हैं, या फिर उसे स्वीकार कर जीवन में आगे बढ़ सकते हैं।

आज की भागदौड़ भरी और प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में लोग छोटी-छोटी बातों पर भी मानसिक तनाव और अवसाद का शिकार हो जाते हैं। असल में दुख तो बीत जाता है, लेकिन हम उसके साथ जुड़ी पीड़ा को अपने भीतर जीवित रखते हैं और वही हमारी मानसिक शांति को खत्म कर देती है। विशेषज्ञों का मानना है कि दुख को स्वीकार करना, उसे समझकर उससे सीख लेना, और फिर उसे जाने देना — यही मानसिक स्वास्थ्य का रास्ता है।

महात्मा बुद्ध ने भी यही शिक्षा दी थी कि जीवन में दुख से बचा नहीं जा सकता, लेकिन दुख को लेकर हम कैसी सोच रखें, यह पूरी तरह हमारे नियंत्रण में है। किसी घटना की वास्तविकता उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती, जितना महत्वपूर्ण होता है कि हम उसे किस नज़रिए से देखते हैं। यही सोच हमें पीड़ा से मुक्त कर सकती है।

मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि अगर व्यक्ति दुख के बावजूद सकारात्मक दृष्टिकोण रखे, तो उसका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर रहता है। दुख में डूबे रहने से रोग प्रतिरोधक क्षमता तक प्रभावित होती है, जबकि स्वीकार्यता और क्षमा जैसे गुण हमें मजबूती देते हैं।

अंततः, दुख जीवन का हिस्सा है — इसे कोई नहीं बदल सकता। लेकिन उसकी पीड़ा को कितना स्थान देना है, यह हमारा व्यक्तिगत चुनाव होता है। यदि हम चाहें तो कठिनाइयों से सबक लेकर और अधिक समझदार बनकर बाहर निकल सकते हैं। यही जीवन की सच्ची शक्ति है, जो हमें दुर्गम परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने की हिम्मत देती है।

  • लेखक : मनोज श्रीवास्तव, उपनिदेशक सूचना एवं लोकसम्पर्क विभाग उत्तराखंड, देहरादून

Related Posts