देहरादून (प्रदीप रावत ‘रवांल्टा’): पहाड़ क्या कोई अभिशाप है? क्या पहाड़ पर कोई कलंक है? जब दुनियाभर के लोग उत्तराखंड के पहाड़ों में आना चाहते हैं, तो हम पहाड़ छोड़कर क्यों जाना चाहते हैं? कई तरह के सवाल हैं। इन सवालों का जवाब तो कई लोग देंगे, लेकिन क्या उनमें से कोई ऐसा जवाब भी होगा, जिसे हम सही मान सकेंगे। ये बातें हम इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि पहाड़ में अपने गांवों में रहकर मेहनत करने वाले युवाओं की शादी नहीं हो पा रही है। उनको दुल्हन नहीं मिल पा रही है। कोई अपनी बेटी को पहाड़ के किसी गाँव में नहीं ब्याहना चाहता। ऐसा सब कर रहे होंगे ऐसा कहना थोड़ा अनुचित है, लेकिन ज्यादातर लोग ऐसा ही सोचते और करते हैं। यह स्थिति पहाड़ में बढ़ती जा रही है। यह पलायन के एक्सीलेटर को और जोर से दबाने का काम कर रहा है, जिससे रफ्तार इहले से ज्यादा तेज हो रही है।
देहरादून वाला ही होना चाहिए
कारण शायद आप भी जानते ही होंगे। अगर नहीं जानते हैं, तो हम आपको बताते हैं। दरअसल,ज्यादातर लोग अपनी बेटी को पहाड़ के युवाओं के साथ नहीं ब्याहना चाहते। हर कोई यही चाहता है कि उनकी बेटी या बेटा जिससे भी शादी करे, वो कम से दिल्ली या देहरादून वाला ही होना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों है?
पहाड़ को हमने इतना बदतर समझ लिया
सवाल यह है कि क्या पहाड़ को हमने इतना बदतर समझ लिया कि वहां रहना तक नहीं चाहते। जबकि, हमारी जड़ें वहीं से निकली हैं। देहरादून या दिल्ली में ऐसा क्या है, जो सब वहीं भाग रहे हैं। दिल्ली-देहरादून वाले पहाड़ की चीजों के लिए तरस्ते हैं। वो यहां के उत्पादों को अपने साथ एक याद की तरह लेकर जाना चाहते हैं। फिर पहाड़ से बैर क्यों?
आजकल एक ट्रैंड चल पड़ा है
आजकल एक ट्रैंड चल पड़ा है कि शादी करने से पहले मां-बाप यही शर्त रखते हैं कि फैमिली के साथ नहीं रह सकते। शादी के बाद अलग रहेंगे। क्यों? ऐसा क्या हुआ कि अब तक अपने परिवार के साथ रहने वाले बेटे-बेटियां शादी के बाद परिवार के साथ नहीं रहना चाहते? क्या वो अपना परिवार नहीं बसाएंगे? क्या यह नहीं सोचते कि कलकों उनके बेटे-बेटियां भी उनके साथ ऐसा ही करेंगे।
दिल्ली-देहरादून में घर-प्लाट है या नहीं?
एक और चलन यह चल निकला है कि लड़के से सबसे पहले यह पूछा जाता है कि दिल्ली-देहरादून में घर-प्लाट है या नहीं? क्या शादी प्लाट से की जा रही है या फिर लड़के से…? सबको ऐसा क्यों लगता है कि मैदान में ही जीवन है। असल जीवन तो पहाड़ पर है। लोग पहाड़ में आने के लिए तसते हैं और हम पहाड़ को वीरान करने के लिए हर दिन नए तरीके खोज रहे हैं।
जिम्मेदार भी आप और हम ही हैं
हां पहाड़ में सुविधाओं की कमी है। लेकिन, उनके लिए जिम्मेदार भी आप और हम ही हैं। हम वोट देते वक्त और वोट देने के बाद नेता से यह सवाल नहीं पूछते कि उनके पहाड़ का ऐसा हाल क्यों है? क्यों दूसरी बार भी वोट के लिए झोली फैलाने वालों को कड़े शब्दों में नहीं कह दिया जाता है कि पहले स्कूल, अस्पताल की व्यवस्था करो। रोजगार के साधन जुटाकर दो…तभी वोट देंगे। जिस दिन ऐसा हो जाएगा, पहाड़ से कोई नहीं जाएगा।
फिर कभी लौटकर नहीं आता…आखिर क्यों?
हमारे पूर्वज इन्हीं पहाड़ों पर रहकर खुशहाल जिंदगी जीते आ रहे हैं। देहरादून के 10-गुणा-12 के कमरों में हमारे बुजुर्गों का दम घुटता है। वो आज भी शहरों में नहीं रहना चाहते। कमसे कम पहाड़ से जाने के बाद लौट तो आइए। कभी-कभार अपना गांव तो देख लिया कीजिए। पहाड़ दुखी है कि जो भी उसे छोड़कर जाता है। फिर कभी लौटकर नहीं आता…आखिर क्यों? नौकरी के लिए जरूर जाइए, लेकीन अब तो लोग स्थाईतौर शहर को ही अपना ठौर बना ले रहे हैं।
ऐसा वीराना कैसे छोड़ सकते हैं?
आपका वो गांव भी आपसे सवाल पूछता होगा कि जिसे मैंने पाला, जिसकी कई पीड़ियों ने मुझे भोगा। आज वो मुझे ऐसा वीराना कैसे छोड़ सकते हैं। उन खेतों के मन में भी कुछ सवाल उठते होंगे, जिनमें कभी फसल लहलहाती थी। जहां कभी खुशहाली थी…आज उनमें जंगल उग आया है।
खुशी तनाव की जिंदगी में गम बन जाती है
आखिर क्यों शादी के लिए देहरादून की शर्त रखी जा रही है। पहाड़ के हमारे युवा इस शर्त के आगे कुछ तो टूट जाते हैं। जिंदगीभर के लिए बैंक लोन के कर्ज तले दबे रहते हैं। जिस खुशहाली के लिए पहाड़ छोड़कर शहर जाते हैं। वो खुशहाली लोन चुकाने के टेंशन में गुम हो जाती है। जिस सुविधा के लिए पहाड़ छोड़ आते हैं। वह खुशी तनाव की जिंदगी में गम बन जाती है। आखिर क्यों इसलिए पहाड़ छोड़ते हैं?